हिंदी दिवस विशेष हिंदी साहित्य के जनक थे राहुल सांकृत्यायन:प्रदीप वर्मा वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी दिवस विशेष हिंदी साहित्य के जनक थे राहुल सांकृत्यायन
प्रदीप वर्मा वरिष्ठ पत्रकार
राहुल जी के जीवन में पर्यटक वृत्ति सदैव प्रधान रही, परन्तु उनका पर्यटन केवल पर्यटन के लिए ही नहीं रहा। पर्यटन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति सर्वोपरि रही। अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक वलयों में रहने के बाद भी उनके अध्ययन एवं चिन्तन में कभी जड़ता नहीं आने पायी। राहुल जी बाल्यकाल से ही मेधावी थे। समूचे दर्जे में अव्वल होना उनके लिए साधारण बात थी। परिस्थितियों के अनुसार जिस विषय के सम्पर्क में वे आये, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करना उनका व्यक्तिगत धर्म बन गया। वाराणसी में जब संस्कृत से अनुराग हुआ, तो सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य एवं दर्शनादि को पढ़ लिया। कलकत्ता में अंग्रेज़ी से पाला पड़ा तो कुछ समय में अंग्रेज़ी के ज्ञाता बन गये। आर्य समाज का जब प्रभाव पड़ा तो वेदों को मथ डाला। बौद्ध धर्म की ओर जब झुकाव हुआ तो पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, तिब्बती, चीनी, जापानी, एवं सिंहली भाषाओं की जानकारी लेते हुए सम्पूर्ण बौद्ध ग्रन्थों का मनन किया और सर्वश्रेष्ठ उपाधि ‘त्रिपिटिका चार्य’ की पदवी पायी। साम्यवाद के क्रोड़ में जब राहुल जी गये तो कार्ल मार्क्स, लेनिन तथा स्तालिन के दर्शन से पूर्ण परिचय हुआ। प्रकारान्तर से राहुल जी इतिहास, पुरातत्त्व, स्थापत्य, भाषाशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन को हिन्दी यात्रा साहित्य का प्रवर्तक (जनक ) माना जाता है। वे एक जाने-माने बहुभाषाविद थे और 20वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने यात्रा वृतांत एवं विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में अनुक्रमिक माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तककी यात्रा की थी।
राहुल लोक साहित्य, यात्रा साहित्य, जीवनी, राजनीति, इतिहास, संस्कृत के ग्रन्थों की टीका और अनुवाद, कोश, तिब्बती भाषा एवं बालपोथी सम्पादन आदि विषयों पर पूरे अधिकार के साथ लिखा है। हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में राहुल ने ‘अपभ्रंश काव्य साहित्य’ ‘दक्खिनी हिन्दी साहित्य’ ‘आदि हिन्दी की कहानियाँ’ प्रस्तुत कर लुप्तप्राय निधि का उद्धार किया है। राहुल की मौलिक कहानियाँ एवं उपन्यास एक नये दृष्टिकोण को सामने रखती है। साहित्य से सम्बन्धित राहुल की रचनाओं में एक उन्होंने प्राचीन इतिहास अथवा वर्तमान जीवन के उन अछूते अंगों को स्पर्श किया है, जिस पर साधारणतया लोगों की दृष्टि नहीं गयी थी। उन रचनाओं में जहाँ एक ओर प्राचीन के प्रति मोह, इतिहास का गौरव आदि है, तो दूसरी ओर उनकी अनेक रचनाएँ स्थानीय रंगत को लेकर मोहक चित्र उपस्थित करती है। ‘सतमी के बच्चे’ और ‘कनैला की कथा’ इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। राहुल जी ने प्राचीन खण्डहरों से गणतंत्रीय प्रणाली को खोज निकाला। धार्मिक आन्दोलनों के मूल में जाकर सर्वहारा के धर्म को पकड़ लिया। इतिहास के पृष्ठों में असाधारण के स्थान पर साधारण को अधिक प्रश्रय दिया और इस प्रकार जनता, जनता का राज्य, मेहनतकश मज़दूर यह सब उनकी रचनाओं के मूलाधार बने। साहित्यिक भाषा, काव्यात्मकता अथवा व्यंजनाओं का सहारा न लेते हुए राहुल जी ने सीधी, सरल शैली का सहारा लिया।राहुल का बचपन उनके ननिहाल पन्दहा गाँव बीता। राहुल के नाना पण्डित राम शरण पाठक, जो फ़ौज में नौकरी कर चुके थे। नाना के मुख से सुनी हुई फ़ौज़ी जीवन की कहानियाँ, शिकार के अद्भुत वृत्तान्त, देश के कई प्रदेशों का रोचक वर्णन, अजन्ता-एलोरा की किवदन्तियों एवं नदियों, झरनों के वर्णन आदि ने राहुल के आने वाले जीवन की भूमिका तैयार कर दी थी। इसके अलावा उर्दू किताब में पढ़ा हुआ नवाजिन्दा-बाजिन्दा का शेर
सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहा.
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहा
राहुल को दूर देश जाने के लिए प्रेरित करने लगा।इसके कुछ समय के बाद घर छोड़ने का उन्हे नाना की डाँट का भय था, नवाजिन्दा बाजिन्दा का वह शेर और नाना के ही मुख से सुनी कहानिया इन सबने मिलकर राहुल को घर से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर दिया।क्षेत्र के पन्दहा गाव मे राहुल का जन्म हुआ था । उनके पिता का नाम गोवर्धन पाण्डे और उनकी माता का नाम कुलवन्ती था। उनके चार भाई और एक बहन थी, लेकिन उनकी बहन की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। राहुल अपने भाइयों में बड़े थे। पितृकुल से मिला हुआ उनका नाम केदारनाथ पाण्डे था। 1930 में लंका में बौद्ध होने पर उनका नाम राहुल रख दिया गया। बौद्ध होने के पहले राहुल ‘दामोदर स्वामी’ के नाम से भी पुकारे जाते थे। उनके ‘राहुल’ नाम के आगे ‘सांस्कृत्यायन’ इसलिए लगा कि पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय है।वर्ष1958मे उन्हें साहित्य अकादमी और 1963मे भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।